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यह भी है एक रंग, इस रंग भरी दुनिया का

इस चित्र का बैकग्रॉउंड रंग बिरंगा है। चित्र के बीच में एक भूरे रंग की नाव है जिसमें माँ और बेटी साथ बैठे हुए है। माँ ने पीले रंग और लाल पाइपिंग का कुर्ता पहना हुआ है व बच्ची ने सुन्दर सी हरी-नीली ड्रेस पहनी हुई है। बच्ची के हाथ में पीले रंग का एक लालटेन है और माँ उसे एक लाल रंग की किताब से कहानी पढ़कर सुना रही है।

न जाने क्यों लोग बार-बार यह जताना चाहते हैं कि आपका बच्चा ‘नॉर्मल’ नहीं है। मन करता है चीखकर उनसे पूछूँ कि यह ‘नॉर्मल’ क्या है?

अब से कुछ बरस पहले, जब मुझे पता चला कि मेरी बेटी विकलांग है तब पहली प्रतिक्रिया थी कि क्यों? मैं ही क्यों? सच कहूँ तो इस वक़्त लिखते हुए महसूस कर पा रही हूँ कि वह दौर क्या था। लेकिन खुद को ख़ुशक़िस्मत समझती हूँ कि मेरी बेटी की विकलांगता का सच आया ज़रूर एक सदमे की तरह था, पर वह कठिन वक़्त जल्द ही गुज़र गया। 

हाँ, मेरी एक प्यारी सी पाँच साल की बेटी है, और उसे सेरिब्रल पॉलसी है, एक ऐसी अवस्था जिसमे दिमाग का शरीर के साथ तालमेल कम होता है या होता ही नहीं है। मेरी बेटी के मामले में उसके पैरों पर इसका असर सबसे ज़्यादा है और वह विशेष जूतों की मदद से अभी भी चलना सीख रही है। 

उसके आने के दो महीने बाद ही मुझे उसकी प्रतिक्रियाओं में फ़र्क दिख रहा था। मैं उसकी हर चीज़ पर ध्यान देती थी, शिकायत करती थी। यहाँ तक की तंग आकर, मेरे परिवार वालों ने मुझसे कहा कि मुझे उसमें सिर्फ ख़ामियाँ ही नज़र आती हैं। हालाँकि मुझे अंदाज़ा हो गया था, लेकिन डॉक्टर ने उसकी स्थिति के बारे में २२ महीने बाद ही बताया। और जब आधिकारिक तौर पर पता चला कि मेरी बेटी को सेरिब्रल पॉलसी है तब मैं घर आकर बहुत रोई। मैंने सोचा कि आख़िर मैं इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी कैसे संभाल पाऊंगी और वही सवाल, ‘क्यों?’ अच्छी बात तो यह थी कि उसकी थेरेपी अगले ही दिन से शुरू हो गई, यानी एक लंबी लड़ाई का दौर फ़ौरन शुरू हो गया था। लेकिन उसके बावजूद भी मन यह मानने को तैयार नहीं था कि वह विकलांग है, बस मेरे लिए थोड़ी स्पेशल है। 

एक दफ़ा हमारे थेरेपिस्ट से इनकम टैक्स रिटर्न की बात कर रही थी जब उन्होंने सलाह दी कि मुझे अपनी बेटी का विकलांगता प्रमाण पत्र बनवा लेना चाहिए क्योंकि वह ६०७० प्रतिशत विकलांग है और मुझे खासी छूट मिलेगी।

विकलांग? और मेरी बेटी? यह शब्द मानो मेरे दिल को भेदता हुआ निकल गया

सच कहूँ तो कुछ महीने लगे इससे उबरने में और यह मानने में कि मेरी बेटी विकलांग है, लेकिन अब ज़रूरी था कि मैं खुद को और इसे सबका सामना करने के लिए तैयार करूँ। बहुत मुश्किलथा और हैखुद के लिए यह स्वीकार कर पाना बिना किसी बेचारगी के एहसास के। पर आख़िर इस दुनिया में किसकी परिस्थितियाँ परफेक्ट हैं? और इसी ख़्याल से अगर दोस्ती कर लें तो लड़ाई कम तो नहीं लेकिन लड़ने की क्षमता दोगुनी ज़रूर हो जाती है। और वैसे भी ये सब हमारे देखने और महसूस करने का नज़रिया ही तो है ?

परिवार और दोस्तों की मदद से ख़ुद को समझाने का दौर तो जल्दी गुज़र गया था, पर मुश्किल है यह सब बाहरी दुनिया को समझाने का दौर। कभीकभी बहुत दुःख होता है लोगों के रवैये से जब उत्तर पता होने के बावजूद भी लोग पूछने से बाज़ नहीं आते, जैसे कि विकलांगता कोई कमी या ख़ामी हो।

अक़्सर जब मैं अपनी बेटी को सड़क या बाज़ार में चला रही होती हूँ तो लोग आकर पूछते हैं, ‘चल नहीं पाती क्या?’ और मैं कहती हूँ, ‘क्यों चल तो रही है’ इसके बाद एक और मज़ेदार सवाल होता है, ‘नहीं, मतलब कुछ दिक्कत है?’ और मैं हँस कर कह देती हूँ कि आपको नहीं लग रहा तो मैं क्या बताऊँ? इसी कड़ी में कुछ दिनों पहले एक और वाकया जुड़ा। स्कूल में जब बेटी को क्लास की तरफ ले जा रही थी तब एक महिला ने मुझसे आकर पूछा, ‘इसके पैर ठीक तो हो जायेंगे ?’ मैंने पूरी तसल्ली दी कि हाँ, एक दिन मेरी बेटी अपने आप चलने लगेगी।

जाने क्यों लोग बारबार यह जताना चाहते हैं कि आपका बच्चानॉर्मलनहीं है। मन करता है चीखकर उनसे पूछूँ कि यहनॉर्मल’ क्या है? कुछ दिनों पहले, मेरी बेटी के स्कूल की आया ने मुझसे कहा कि क्योंकि मैं एक कामकाजी महिला हूँ और डॉक्टर्स के भरोसे अपनी बेटी को छोड़ देती हूँ, खुद उसकी मालिश इत्यादि नहीं करती इसलिए वह ‘ऐसी’ है और चल नहीं पा रही है। इसी तरह जब बेटी के साथ मैं साझा टैक्सी में रही थी तो सामने की सीट पर बैठी हुई महिला बेटी के जूते देख अचानक कह पड़ी, ‘अगर बचपन में ढंग से मालिश की होती तो ये नौबत नहीं आती’ एक दफा मैं अपनी बेटी को धीरेधीरे बाज़ार में चला रही थी तभी एक जल्दबाज़ व्यक्ति ने मुझसे कहा, ‘इसे गोद में क्यों नहीं उठा लेती, रास्ता जल्दी खाली हो जायेगा’ बिना बहस किये मैं और मेरी बेटी एक किनारे हो लिए। 

बहुत हँसी आती है लोगों के रवैये को देखकर। ज़्यादातर मैं बहस नहीं करती, लेकिन किसी को यह हक़ देना कि वो मेरी बेटी को कमतर या कमज़ोर महसूस कराएँ यह मुझे कतई मंज़ूर नहीं।

बहुतों के लिए यह समझना काफ़ी कठिन होता है कि दुनिया में कई प्रकार के लोग हैं जिनकी ज़रूरतें और गुण हमसे अलग हो सकते हैं। क्यों हम लोगों को सामान्य और असामान्य के दो वर्गों में बाँटना चाहते हैं? क्यों हम विकलांगता को अपने और दूसरों के लिए बाधा समझते हैं?

कई बार तो थेरेपिस्ट और डॉक्टर भी जताते हैं कि ऐसा करने से, वैसा करने से बच्चा ‘ज़्यादा नॉर्मल’ हो जायेगा। मैं बहस तो नहीं करती लेकिन टोक ज़रूर देती हूँ कि आपका मतलब ‘सोकॉल्ड नॉर्मल’ है। ऐसा कहने से लोग सोचने ज़रूर लगते हैं कि आख़िरपरफेक्ट’ तो दुनिया में कुछ भी नहीं है तो फिर ‘नॉर्मल’ के नाम पर ‘परफेक्शन’ की ख्वाहिश क्यों

रंगों की तरह ही दुनिया में हर तरह के लोग होते हैं और कठिनाइयों से सब जूझते हैंविकलांग, अविकलांग हर रंग है, तो हर रंग मिलेगा ही। हमें भी अपना रंग इसमें सिर्फ शामिल ही नहीं करना बल्कि उसमें चमक लाना है कि लोगों को वह दिख सके। यह कब होगा और कैसे, इन सवालों का जवाब तो किसी के पास नहीं है पर हाँ, कोशिश पूरी कर सकते हैं। आख़िर इतने लोगों की कोशिश कभी कभी, किसी किसी दिन रंग तो ज़रूर लाएगी, है ?

 चित्र श्रेय: आलिया सिन्हा